Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


11

दरवाजे पर आकर सुमन सोचने लगी कि अब कहां जाऊं। गजाधर की निर्दयता से भी उसे दुःख न हुआ था, जितना इस समय हो रहा था। उसे अब मालूम हुआ कि मैंने अपने घर से निकलकर बड़ी भूल की। मैं सुभद्रा के बल पर कूद रही थी। मैं इन पंडितजी को कितना भला आदमी समझती थी। पर अब मुझे मालूम हुआ कि यह भी रंगे हुए सियार हैं। अपने घर के सिवा अब मेरा कोई ठिकाना नहीं है। मुझे दूसरों की चिरौरी करने की जरूरत ही क्या? क्या मेरा कोई घर नहीं था? क्या मैं इनके घर जन्म काटने आई थी। दो-चार दिन में जब उनका क्रोध शांत हो जाता, आप ही चली जाती। ओह! नारायण, क्रोध में बुद्धि कैसी भ्रष्ट हो जाती है। मुझे इनके घर को भूलकर भी न आना चाहिए था, मैंने अपने पांव में आप की कुल्हाड़ी मारी। वह अपने मन में न जाने क्या समझते होंगे?

यह सोचते हुए सुमन आगे चली, पर थोड़ी दूर चलकर उसके विचारों ने फिर पलटा खाया। मैं कहां जा रही हूं? वह अब कदापि मुझे घर में न घुसने देंगे। मैंने कितनी विनती की, पर उन्होंने एक न सुनी। जब केवल रात को कुछ घंटे की देर हो जाने से उन्हें इतना संदेह हो गया, तो अब मुझे चौबीस घंटे हो चुके हैं और मैं शामत की मारी वहीं आई, जहां मुझे न आना चाहिए था। वह तो अब मुझे दूर से ही दुतकार देंगे। यह दुतकार क्यों सहूं? मुझे कहीं रहने का स्थान चाहिए। खाने भर को किसी न किसी तरह कमा लूंगी। कपड़े भी सीऊंगी तो खाने-भर को मिल जाएगा, फिर किसी की धौंस क्यों सहूं? इनके यहां मुझे कौन-सा सुख था? व्यर्थ में एक बेड़ी पैरों में पड़ी हुई थी। और लोक-लाज से मुझे वह रख भी लें, तो उठते-बैठते ताने दिया करेंगे। बस, चलकर एक मकान ठीक कर लूं। भोली क्या मेरे साथ इतना भी सलूक न करेगी? वह मुझे अपने घर बार-बार बुलाती थी, क्या इतनी दया भी न करेगी?

अमोला चली जाऊँ तो कैसा हो? लेकिन वहां पर कौन बैठा हुआ है? अम्मा मर गई। शान्ता है। उसी का निर्वाह होना कठिन है, मुझे कौन पूछने वाला है? मामी जीने न देंगी। छेद-छेदकर मार डालेंगी। चलूं भोली से कहूं, देखूं क्या कहती है? कुछ न हुआ तो गंगा तो कहीं नहीं गई है? यह निश्चय करके सुमन भोली के घर चली। इधर-उधर ताकती थी। कहीं गजाधर न आता हो।

भोली के द्वार पर पहुंचकर सुमन ने सोचा, इसके यहां क्यों जाऊं? किसी पड़ोसिन के घर जाने से काम न चलेगा? इतने में भोली ने उसे देखा और इशारे से ऊपर बुलाया। सुमन ऊपर चली गई।

भोली का कमरा देखकर सुमन की आँखें खुल गईं। एक बार वह पहले भी आई थी, लेकिन नीचे के आंगन से ही लौट गई थी। कमरा फर्श मसनद, चित्रों और शीशे के सामानों से सजा हुआ था। एक छोटी-सी चौकी पर चांदी का पानदान रखा हुआ था दूसरी चौकी पर चांदी की तश्तरी और चांदी का एक गिलास रखा हुआ था। सुमन यह सामान देखकर दंग रह गई।

भोली ने पूछा– आज यह संदूकची लिए इधर कहां से आ रही थीं?

सुमन– यह राम-कहानी फिर कहूंगी; इस समय तुम मेरे ऊपर कृपा करो कि मेरे लिए कहीं अलग एक छोटा-सा मकान ठीक करा दो। मैं उसमें रहना चाहती हूं।

भोली ने विस्मित होकर कहा– यह क्यों, शौहर से लड़ाई हो गई है?

सुमन– नहीं, लड़ाई की क्या बात है? अपना जी ही तो है।

भोली– जरा मेरे सामने ताको। हां, चेहरा साफ कह रहा है। क्या बात हुई?

सुमन– सच कहती हूं, कोई बात नहीं है। अगर अपने रहने से किसी को कोई तकलीफ हो तो क्यों रहे?

भोली– अरे, तो मुझसे साफ-साफ कहती क्यों नहीं, किस बात पर बिगड़े हैं?

सुमन– बिगड़ने की कोई बात नहीं। जब बिगड़ ही गए तो क्या रह गया?

भोली– तुम लाख छिपाओ, मैं ताड़ गई सुमन, बुरा न मानों तो कह दूं। मैं जानती थी कि कभी-न-कभी तुमसे खटकेगी जरूर। एक गाड़ी में कहीं अरबी घोड़ी और कहीं लद्दू, टट्टू जुत सकते हैं? तुम्हें तो किसी बड़े घर की रानी बनना चाहिए था। मगर पाले पड़ी एक खूसट के, जो तुम्हारा पैर धोने लायक भी नहीं। तुम्हीं हो कि यों निबाह रही हो, दूसरी होती तो मियां पर लात मारकर कभी की चली गई होती। अगर अल्लाहताला ने तुम्हारी शक्ल-सूरत मुझे दी होती, तो मैंने अब तक सोने की दीवार खड़ी कर ली होती। मगर मालूम नहीं, तुम्हारी तबीयत कैसी है। तुमने शायद अच्छी तालीम नहीं पाई।

सुमन– मैं दो साल तक एक ईसाई लेडी से पढ़ चुकी हूं।

भोली– दो-तीन साल की और कसर रह गई। इतने दिन और पढ़ लेती, तो फिर यह ताक न लगी रहती। मालूम हो जाता कि हमारी जिंदगी का क्या मकसद है, हमें जिंदगी का लुत्फ कैसे उठाना चाहिए। हम कोई भेड़-बकरी तो नहीं कि मां-बाप जिसके गले मढ़ दें, बस उसी की हो रहें। अगर अल्लाह को मंजूर होता कि तुम मुसीबतें झेलो, तो तुम्हें परियों की सूरत क्यों देता? यह बेहूदा रिवाज यहीं के लोगों में है कि औरत को इतना जलील समझते हैं; नहीं तो और सब मुल्कों की औरतें आजाद हैं, अपनी पसंद से शादी करती हैं और उससे रास नहीं आती, तो तलाक दे देती हैं। लेकिन हम सब वही पुरानी लकीर पीटे जा रही हैं।

सुमन ने सोचकर कहा– क्या करूं बहन, लोक-लाज का डर है, नहीं तो आराम से रहना किसे बुरा मालूम होता है?

भोली– यह सब उसी जिहालत का नतीजा है। मेरे मां-बाप ने मुझे एक बूढ़े मियां के गले बांध दिया था। उसके यहां दौलत थी और सब तरह का आराम था, लेकिन उसकी सूरत से मुझे नफरत थी। मैंने किसी तरह छह महीने तो काटे, आखिर निकल खड़ी हुई। जिंदगी जैसी नियामत रो-रोकर दिन काटने के लिए नहीं दी गई है। जिंदगी का मजा ही न मिला, तो उससे फायदा ही क्या? पहले मुझे भी डर लगता था कि बड़ी बदनामी होगी, लोग मुझे जलील समझेंगे; लेकिन घर से निकलने की देरी थी, फिर तो मेरा वह रंग जमा कि अच्छे-अच्छे खुशामदें करने लगे। गाना मैंने घर पर ही सीखा था, कुछ और सीख लिया, बस सारे शहर में धूम मच गई। आज यहां कौन रईस, कौन महाजन, कौन मौलवी, कौन पंडित ऐसा है, जो मेरे तलुवे सहलाने में अपनी इज्जत न समझे? मंदिरों में, ठाकुरद्वारों में मेरे मुजरे होते हैं। लोग मिन्नतें करके ले जाते हैं। इसे मैं अपनी बेइज्जती कैसे समझूं? अभी एक आदमी भेज दूं, तो तुम्हारे कृष्ण-मंदिर के महंतजी दौड़े चले आवें। अगर कोई इसे बेइज्जती समझे, तो समझा करे।

सुमन– भला, यह गाना कितने दिन में आ जाएगा।

भोली– तुम्हें छह महीने में आ जाएगा; यहां गाने को कौन पूछता है, धुप्रद और तिल्लाने की जरूरत ही नहीं। बस, चली हुई गजलों की धूम है। दो-चार ठुमरियां और कुछ थिएटर के गाने आ जाएं और बस, फिर तुम्हीं तुम हो। यहां तो अच्छी सूरत और मजेदार बातें चाहिए, सो खुदा ने यह दोनों बातें तुममें कूट-कूटकर भर दी हैं। मैं कसम खाकर कहती हूं सुमन, तुम एक बार इस लोहे की जंजीर को तोड़ दो; फिर देखो, लोग कैसे दीवानों की तरह दौड़ते हैं।

सुमन ने चिंतित भाव से कहा– यही बुरा मालूम होता है कि...

भोली– हां-हां, कहो, यही कहना चाहती हो न कि ऐरे-गैरे सबसे बेशरमी करनी पड़ती है। शुरू में मुझे भी यही झिझक होती थी। मगर बाद को मालूम हुआ कि यह ख्याल-ही-ख्याल है। यहां ऐरे-गैरे के आने की हिम्मत ही नहीं होती। यहां तो सिर्फ रईस लोग आते हैं। बस, उन्हें फंसाए रखना चाहिए। अगर शरीफ है, तब तो तबीयत आप-ही-आप उससे मिल जाती है और बेशरमी का ध्यान भी नहीं होता, लेकिन अगर उससे अपनी तबीयत न मिले, तो उसे बातों में लगाए रहो, जहां तक उसे नोचते-खसोटते बने, नोचो-खसोटो। आखिर को वह परेशान होकर खुद ही चला जाएगा, उसके दूसरे भाई और आ फंसेंगे। फिर पहले-पहल तो झिझक होती ही है। क्या शौहर से नहीं होती? जिस तरह धीरे-धीरे उसके साथ झिझक दूर होती है, उसी तरह यहां होता है।

सुमन ने मुस्कराकर कहा– तुम मेरे लिए एक मकान ठीक कर दो।

भोली ने ताड़ लिया कि मछली चारा कुतरने लगी, अब शिस्त को कड़ा करने की जरूरत है। बोली– तुम्हारे लिए यही घर हाजिर है। आराम से रहो।

सुमन– तुम्हारे साथ न रहूंगी।

भोली– बदनाम हो जाओगी, क्यों?

सुमन– (झेंपकर) नहीं, यह बात नहीं।

भोली– खानदान की नाक कट जाएगी?

सुमन– तुम तो हंसी उड़ाती हो।

भोली– फिर क्या, पंडित गजाधरप्रसाद पांडे नाराज हो जाएंगे?

सुमन– अब मैं तुमसे क्या कहूं?

सुमन के पास यद्यपि भोली का जवाब देने के लिए कोई दलील न थी। भोली ने उसकी शंकाओं का मजाक उड़ाकर उन्हें पहले से ही निर्बल कर दिया था। यद्यपि अधर्म और दुराचार से मनुष्य का जो स्वाभाविक घृणा होती है, वह उसके हृदय को डावांडोल कर रही थी। वह इस समय अपने भावों को शब्दों में न कह सकती थी। उसकी दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो किसी बाग में पके फल को देखकर ललचाता है, पर माली के न रहते हुए भी उन्हें तोड़ नहीं सकता।

इतने में भोली ने कहा– तो कितने किराये तक का मकान चाहती हो, मैं अभी अपने मामा को बुलाकर ताकीद कर दूं।

सुमन– यही दो-तीन रुपए।

भोली– और क्या करोगी?

सुमन– सिलाई का काम कर सकती हूं।

भोली– और अकेली ही रहोगी?

सुमन– हां और कौन है?

भोली– कैसी बच्चों की-सी बातें कर रही हो। अरी पगली, आंखों से देखकर अंधी बनती है। भला, अकेले घर में एक दिन भी तेरा निबाह होगा? दिन-दहाड़े आबरू लुट जाएगी। इससे तो हजार दर्जे यही अच्छा है कि तुम अपने शौहर के ही पास चली जाओ।

सुमन– उसकी तो सूरत देखने को जी नहीं चाहता। अब तुमसे क्या छिपाऊं, अभी परसों वकील साहब के यहां तुम्हारा मुजरा हुआ था। उनकी स्त्री मुझसे प्रेम रखती है। उन्होंने मुझे मुजरा देखने को बुलाया और बारह-एक बजे तक मुझे आने न दिया। जब तुम्हारा गाना खत्म हो चुका तो मैं घर आई। बस, इतनी-सी बात पर वह इतने बिगड़े कि जो मुंह में आया, बकते रहे। यहां तक कि वकील साहब से भी पाप लगा दिया। कहने लगे, चली जा, अब सूरत न दिखाना। बहन, मैं ईश्वर को बीच देकर कहती हूं, मैंने उन्हें मनाने का बड़ा यत्न किया। रोई, पर उन्होंने घर से निकाल ही दिया। अपने घर में कोई नहीं रखता, तो क्या जबरदस्ती है। वकील साहब के घर गई कि दस-पांच दिन रहूंगी, फिर जैसा होगा देखा जाएगा, पर इस निर्दयी ने वकील साहब को बदनाम कर डाला। उन्होंने मुझे कहला भेजा कि यहां से चली जाओ। बहन, और सब दुःख था, पर यह संतोष तो था कि नारायण इज्जत से निबाहे जाते हैं; पर कलंक की कालिख मुंह में लग गई, अब चाहे सिर पर जो कुछ पड़े, मगर उस घर में न जाऊंगी।

यह कहते-कहते सुमन की आंखें भर आईं। भोली ने दिलासा देकर कहा– अच्छा, पहले हाथ-मुंह तो धो डालो, कुछ नाश्ता कर लो, फिर सलाह होगी। मालूम होता है कि तुम्हें रात-भर नींद नहीं आई।

सुमन– यहां पानी मिल जाएगा?

भोली ने मुस्कराकर कहा– सब इंतजाम हो जाएगा। मेरा कहार हिंदू है। यहां कितने ही हिंदू आया करते हैं। उनके लिए एक हिन्दू कहार रख लिया है।

भोली की बूढ़ी मामी सुमन को गुसलखाने में ले गई। वहां उसने साबुन से स्नान किया। तब मामी ने उसके बाल गूंथे। एक नई रेशमी साड़ी पहनने के लिए लाई। सुमन जब ऊपर आई और भोली ने उसे देखा, तो मुस्कराकर बोली– जरा जाकर आईने में मुंह देख लो।

सुमन शीशे के सामने गई। उसे मालूम हुआ कि सौंदर्य की मूर्ति सामने खड़ी है। सुमन अपने को इतना सुंदर न समझती थी। लज्जायुक्त अभिमान से मुखकमल खिल उठा और आंखों में नशा छा गया। वह एक कोच पर लेट गई।

भोली के अपनी मामी से कहा– क्यों जहूरन, अब तो सेठजी आ जाएंगे पंजे में?

जहूरन बोली– तलुवे सहलाएंगे– तलुवे।

थोड़ी देर में कहार मिठाइयां लाया। सुमन ने जलपान किया। पान खाया और फिर आईने के सामने खड़ी हो गई। उसने अपने मन में कहा, यह सुख छोड़कर उस अंधेरी कोठरी में क्यों रहूं?

भोली ने पूछा– गजाधर शायद मुझे तुम्हारे बारे में कुछ पूछे, तो क्या कह दूंगी?

सुमन ने कहा– कहला देना कि यहां नहीं है।

भोली का मनोरथ पूरा हो गया– उसे निश्चय हो गया कि सेठ बलभद्रदास जो अब तक मुझसे कन्नी काटते फिरते थे, इस लावण्यमयी सुंदरी पर भ्रमर की भांति मंडराएंगे।

सुमन की दशा उस लोभी डाक्टर की-सी थी, जो अपने किसी रोगी मित्र को देखने जाता है और फीस के रुपए अपने हाथों में नहीं लेता। संकोचवश कहता है, इसकी क्या जरूरत है, लेकिन रुपए जब उसकी जेब में डाल दिए जाते हैं, तो हर्ष से मुस्कराता हुआ घर की राह लेता है।

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